शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

एक कविता तेरे नाम

मैं लिखुँ कविता नाम तेरे, ऐसा तुम मुझसे कहती हो।
क्या लिखुँ तुम्हे, तुम कौन मेरी, तुम कहाँ जमीं पर रहती हो !
तुम तो रहती मेरे दिल में, ज्यों गंध हवा में रहती है।
हो तुम ही मेरा जीवन अब, दिल की हर धडकन कहती है।
तुम ही तो हो "संगीत" मेरा, साँसो में तुम ही रहती हो।
हैं आँखो में सपने तेरे ही, तुम ही अश्रू बन बहती हो।
तुम मन में तो, तुम तन में हो, तुम ही हो मेरे जीवन में।
तुम यादों में, तुम बातों में, तुम ही हो अब हर धडकन में।
तुम यार मेरे, तुम प्यार मेरे, तुम जन्मो से दिलदार मेरे।
ये कैसा अजब "संयोग" हो तुम, हो दूर मगर "संग" रहते हो।
मैं लिखुँ कविता नाम तेरे...

क्यूँ जाते हो परदेश पिया...





क्यूँ जाते हो परदेश पिया, मेरी मानो, रूक जाओ ना।
है शाम ढली, पँछी गाते, तुम भी कोई गीत सुनाओ ना।
जीवन तो यूँही चलता है, सूरज भी हर दिन ढलता है।
कल शाम ढलेगी चल देना, अभी बाहों में आ जाओ ना।।
क्यूँ जाते हो परदेश पिया...


मैं रात-रात भर सोई नही, तेरे ही स्वपन सजाती थी।
हर रोज मचलती मिलने को, पर आह ना लब पे लाती थी।
हैं बहुत परीक्षा दी मैंने, अब और मुझे आजमाओ ना।
तुम छोड चले तो रो दूँगी, सच कहती हूँ, तडपाओ ना।।
क्यूँ जाते हो परदेश पिया...

मुड कर देखो इन आँखो से, अश्रू की धारा बहती है।
ये व्यर्थ रेत में गिरती है, तुम गागर भर ले जाओ ना।
मैं यहाँ तडपती निर्जन में, तुम वहाँ अकेले रहते हो।
तन्हा जीना अब मुश्किल है, मुझको भी संग ले जाओ ना।।
क्यूँ जाते हो परदेश पिया...

मैं देख रही तुम दु्ःखित हुए, बेमन ही बढते जाते हो।
है बहुत कंटीला ये रस्ता, कहकर तुम मुझे डराते हो।
पर सच जानो, कल-कल करते, झरनों से उदित संगीत हूँ मैं।
पत्थर का सीना चीरा है, कांटों से मुझे डराओ ना।।
क्यूँ जाते हो परदेश पिया...