शनिवार, 25 अगस्त 2007

सरस्वती वन्दना

हे माँ वीनावादिनी वर दो, वरण करूं सच्चाई सदा।
दिल को इतना प्रेम से भर दो, जग में करूं अच्छाई सदा।।

झूठ, अधर्म, अत्याचारों से, विरत उम्र भर रह पाऊं।
सत्य, अहिंसा, भक्ति के, पथ का मैं राही बन जाऊं।।

हो अच्छा, बुरा, मित्र या शत्रू, बांटू सबको ज्ञान सदा।
अपने बल और बुद्धि पर ना, हो मुझको अभिमान कदा।।

हो सच्चा, अटल, आचरण मेरा, डिगे नही ईमान कदा।
मात-पिता ओर गुरूओं का मैं, किया करू सम्मान सदा।

दया, धर्म, और प्रेम सदा, जीवन में मेरे साथ रहें।
दीन, दुखी, दुर्बल लोगों के, रक्षक मेरे हाथ रहें।।
मेरी आँखो में समरसता, और दया का वास रहे।
रहे लबों पे नाम तेरा और, मन को तेरी प्यास रहे।।

हे माँ वीनावादिनी वर दो …

सोमवार, 20 अगस्त 2007

लोग

अक्सर लोग मिलते हैं, बिछुड जाते हैं, जमाने में।
जिन्दगी यूं ही गुजर जाती है, आने-जाने में।।
कुछ लोग मगर दिल में, बस जाते हैं इस तरह।
तमाम उम्र कम पडती है, उन्हे दिल से मिटाने में।।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2007

चिड़िया

एक चिड़िया थी अनजानी सी, जो घर पर मेरे रहती थी।
अक्सर मुझसे बतियाती थी, अक्सर मुझसे कुछ कहती थी।।

वो चिड़िया प्रेम पुजारिन थी, मुझ जालिम से तंग रहती थी।
अक्सर मुझ पर चिल्लाती थी, अक्सर वो लडती रहती थी।।

जब हम दोनो अनजाने थे, अक्सर हममे ठन जाती थी।
मैं उसका घर रोज जलाता था, वो फिर घर नया बनाती थी।।
लडते-लडते फिर मुझमें भी, थे प्रेम के अंकुर पनप उठे।
मैं दाना उसे खिलाता था, वो मुझको गीत सुनाती थी।।

एक रोज मगर फिर नियति की, घनघोर घटा घर घिर ही गयी।
वो नन्ही चिड़िया प्यारी सी, टकरा पँखे से गिर ही गयी।।

मैं बस लाचार, विमुख बैठा, था मौत का मंजर देख रहा।
एक प्रेम पुजारिन चली गयी, और मैं खुद को था कोस रहा।।

अब रह-रह कर वीराने में, वो याद मुझे आ जाती है।
हो मुर्ख, रहोगे मुर्ख सदा, यह श्राप मुझे दे जाती है।।
तुम मनु-पुत्र बस जिन्दा हो, जीना तुमने जाना ही नही।
बस दौड़ रहे अविरत, अविराम, कभी खुद को पहचाना ही नही।।

यह एक सत्य था शनि लिखा, और काव्य कंटीला बना दिया।
है प्रेम मनुज क्या जानेगा, अभिशाप पंक्षी ने सुना दिया।।