सोमवार, 21 अप्रैल 2008

आन्नद प्राप्ति कैसे हो?

जब कभी,
मैं अपने घर के बाहर,
निकल कर देखता हूँ,
या जहां की किसी अन्जान जगह पर जाकर,
कुछ शान्ति खोजता हूँ,
तो मुझे मिलते हैं,
करोड़ों, ऐसे परिचित चेहरे,
जो मानव के आघातों से पीड़ित हैं,
ऐसे अन्जान नजारे,
जो मुझसे बिछुड गये हैं,
ऐसे रोते-बिलखते वृक्ष,
जो दर्दों को सहकर भी चुप ही रहते हैं,
ऐसे अन्जान भविष्य के सपने,
जो मूक रहकर भी, कुछ कह जाते हैं,
अपनी इस हालत को,
वो चुप रहकर कैसे सह पाते हैं?
यह सब सोचकर,
मेरा मन व्यथित हो उठता है,
और मैं सोचने लगता हूँ,
मानव की इन बेचैन निगाहों का रहस्य,
मैं खोजने लगता हूँ,
अपनी ही व्याधाओं में उलझकर,
जब मैं सपनों के मूक देश में गिर जाता हूँ,
अपना अस्तित्व भूलकर मैं,
जब इस प्रकृति का एक हिस्सा मात्र बन जाता हूँ,
तब यही अन्जान नजारे, मुझको बतला जाते हैं,
मानव की इन बेचैन निगाहों का, वो रहस्य,
मुझे समझा जाते हैं,
"ये मानव जो कुछ करता है इस जीवन में,
या जो कुछ करने की, ये चाहत रखता है,
जो कुछ इसने पाया है, इस दुनिया में,
और जो कुछ पाने की, ये कोशिश करता है,
उन सब के पीछे, एक ही चाह, 
एक ही विचार रहता है - आन्नद पाने का,
इसलिए यह हर चीज में आन्नद खोजता है,
और जब कुछ भी इसके हाथ नही लगता,
तो ये बेचैन हो जाता है,
और बेचैन होती हैं, इसकी निगाहें,
मगर इसे नही मालूम, 
आन्नद नही है इन भौतिक रूपों में,
अरे!
आन्नद की प्राप्ति उस दुनिया से भला कैसे सम्भव है,
जो खुद आन्नद की खोज में पागल है,
तुम इन मूक पर्वतों को देखो,
जो कभी ना चिन्ता करते हैं,
इन कल-कल करते झरनों को देखो,
जो सदा ही नीचे गिरते हैं,
इन निरन्तर बहती नदियों को देखो,
जो सदा ही आगे बढ़ती हैं,
इन कांटों में खिलते फूलों को देखो,
जो सदा महकते ही रहते हैं,
इन मूक खड़े वृक्षों को देखो,
जो कष्टों को सहकर भी चुप ही रहते हैं,
ये सब के सब आन्नदित हैं,
सब मीठे सपनों में खोये हैं,
ये मानव इसिलिए जागा है,
ये वृक्ष इसिलिए सोये हैं,
क्योंकि इन सब ने, अपने में ही,
आन्नद अनोखा पाया है,
अपने इस मूक स्वर से, इन सब ने,
मानव को भी समझाया है,
ऐ मानव अब भी संभल जा तू,
बेचैन हुआ क्यूँ रोता है,
आन्नद तो तेरे अन्दर है,
तू दिल अपना क्यूँ खोता है,
इस मूक वेदना को सहकर,
जिस दिन स्वयं को पहचानेगा,
आन्नद प्राप्ति कैसे हो?
उस दिन तू स्वयं ये जानेगा ।।"


सोमवार, 17 मार्च 2008

नाविक

एक नाविक है, अंधियारा है, और तीव्र नदी की धारा है।
है फंसा हुआ वो भंवरो में, ना जाने किधर किनारा है।।

है हाथों में पतवार लिए, नैया का उसे सहारा है।
हैं थके-थके उसके बाजु, पर हिम्मत नही वो हारा है।।

है सोच रहा मैं चलूँ किधर, कैसे भव धारा पार करूँ।
हैं टूट चुकी जो पतवारें, कैसे फिर से तैयार करूँ।।

खो दूँ खुद को इन लहरो में, या नैया से मैं प्यार करूँ।
है कौन मेरा जिस की खातिर, तूफानों से टकरार करूँ।।

वो रहा ख्यालों में खोया, पतवार भी उसकी छूट गयी।
बची-कुची जो हिम्मत थी, आखिर में वो भी टूट गयी।।

हो निरूपाय वो नाविक फिर, चीखा, घूटनों पर बैठ गया।
नैया डोली और पलट गयी, संग में नाविक भी डूब गया।।

ना नाव बची, ना नाविक ही, अब लहरें हैं, इठलाती हैं।
एक नाविक को यूँ मिटा दिया, खुश होकर जश्न मनाती हैं।।

मैं भी ऐसा ही नाविक हूँ, जीवन नैया मझधार में है।
हूँ तूफानों से घिरा हुआ, जीना मरना पतवार में है।।

यह तुम जानों, तुम छोड चलो, या आ मेरी पतवार बनों।
इठलानें दो उन लहरों को, या आ मेरी ललकार बनों।।

बन हिम्मत मेरे साथ चलो, या थक मुझको गिर जाने दो।
मिटने दो मुझको लहरों में, या नैया पार लगाने दो।।

एक नाविक है, अंधियारा है, और तीव्र नदी की धारा है।
है फंसा हुआ वो भंवरो में, ना जाने ........................

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

नव वर्ष आपको शुभ हो

आया है फिर नया सवेरा, सुबह लिये नये जीवन की,
शुभ हो सबको नया वर्ष, है दुआ यही मेरे मन की।।