सोमवार, 17 मार्च 2008

नाविक

एक नाविक है, अंधियारा है, और तीव्र नदी की धारा है।
है फंसा हुआ वो भंवरो में, ना जाने किधर किनारा है।।

है हाथों में पतवार लिए, नैया का उसे सहारा है।
हैं थके-थके उसके बाजु, पर हिम्मत नही वो हारा है।।

है सोच रहा मैं चलूँ किधर, कैसे भव धारा पार करूँ।
हैं टूट चुकी जो पतवारें, कैसे फिर से तैयार करूँ।।

खो दूँ खुद को इन लहरो में, या नैया से मैं प्यार करूँ।
है कौन मेरा जिस की खातिर, तूफानों से टकरार करूँ।।

वो रहा ख्यालों में खोया, पतवार भी उसकी छूट गयी।
बची-कुची जो हिम्मत थी, आखिर में वो भी टूट गयी।।

हो निरूपाय वो नाविक फिर, चीखा, घूटनों पर बैठ गया।
नैया डोली और पलट गयी, संग में नाविक भी डूब गया।।

ना नाव बची, ना नाविक ही, अब लहरें हैं, इठलाती हैं।
एक नाविक को यूँ मिटा दिया, खुश होकर जश्न मनाती हैं।।

मैं भी ऐसा ही नाविक हूँ, जीवन नैया मझधार में है।
हूँ तूफानों से घिरा हुआ, जीना मरना पतवार में है।।

यह तुम जानों, तुम छोड चलो, या आ मेरी पतवार बनों।
इठलानें दो उन लहरों को, या आ मेरी ललकार बनों।।

बन हिम्मत मेरे साथ चलो, या थक मुझको गिर जाने दो।
मिटने दो मुझको लहरों में, या नैया पार लगाने दो।।

एक नाविक है, अंधियारा है, और तीव्र नदी की धारा है।
है फंसा हुआ वो भंवरो में, ना जाने ........................