बुधवार, 10 अक्तूबर 2007

एक अरसा हो चुका - गजल

जिसे अब ढूंढते हो तुम, मेरी सूनसान गलियों में,
एक अरसा हो चुका गुजरे, यहां से उस जमाने को।

तुम्ही पर प्यार की दौलत, लुटाया करते थे जब हम,
तड़पते थे हमेशा ही, तेरे नजदीक आने को।
तुम्ही ने फेंका था पत्थर, मेरे सीने पर गुस्से से,
तेरी ही साजिश थी वो सब, मुझे नीचा दिखाने को।

अरे अब नोंच भी ड़ालो, मेरे सीने के जख्मों को,
मचलते क्यूँ हो अब तुम ही, मरहम इन पर लगाने को।

मेरा दिल टूटा खंड़हर है, यहाँ वीरान यादें हैं,
सभी कुछ जानते हो तुम, बचा है क्या छिपाने को।
मेरी खोयी सी आँखों में, ना अब तुम इस कदर झांको,
ये बस जलती ही रहती हैं, नही आँसू बुझाने को।
मेरे सीने की लपटों को, यूँ चुपके से हवा ना दो,
कहीं ऐसा ना हो कि ये, जला ड़ालें जमाने को।

जिसे अब ढूंढते हो तुम...